शर्मीले मोती

| कवि – विनय विक्रम सिंह |

मैं तुमको ढूँढ़ लेता हूँ, पलक की कोर पे अक्सर।

पिघल मिलती हो मोती सी, सुबह को देखते अक्सर।१।

अबोले बोल सी गुपचुप, मुझे छूती हो सावन सी।

किलक उठते हैं मन अंकुर, बरसती रात में अक्सर।२।

चहक उठती हैं दीवारें, झरोखे खोल लेती हैं।

पसारे मौन सी बाँहें, तुम्हें तकती रहें अक्सर।३।

तेरे क़दमों पे चलता हूँ, मेरे खाली किनारों तक।

बिना करता हूँ हर सीपी, नरम सी भोर में अक्सर।४।

घरौंदा रोज़ कहता है महकना भूल बैठा हूँ।

मैं साँसें रोक लेता हूँ सहम इस बात पे अक्सर।५।

समय ठहरा हूँ मैं ठहरा, वहीं उस झील के तट पे।

पलक के बन्द होते जो, सिमट शरमाये जो अक्सर।५।


5 thoughts on “शर्मीले मोती

  1. बड़े ही प्यार से बनाई रचना, बड़ी मिठास के साथ ।
    मज़ा आया पढ़ कर👌🏻

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  2. आपकी कविता की पहली पंक्ति ही पाठक को पकड़ कर अपने पास बिठा लेती है और फिर आगे एक एक पंक्ति भावों में डुबो देती है, बहुत ही प्यारी रचना, साधुवाद 🙏🏻

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  3. आप सभी के उत्साहित करती प्रतिक्रियाओं से अभिभूत हूँ, सादर नमन व धन्यवाद 🙏💐😊😊

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