| कवयित्री – R.goldenink (राखी) |

हर बार बिखरे शब्दों को
जोड़ने का ख्याल आता है
ना सुर ही ध्यान है
ना स्वरों का ही ज्ञान है
ना छंदबद्धता
न ही लयबद्धता
तोड़ सारे नियम
उद्दण्डता से
जीवन के उतार-चढ़ाव को
शब्दों में पिरो कर
एक मनका यहीं पास से
एक दूर कहीं से चुनकर
एक गहराइयों से उबारकर
अनगिनत अपनी ऊँचाइयों से
गुंथ जाती है मेरी कविता
बस रह जाती है अंतिम गाँठ
हाँ , वहीं आकर फिसल जाती
है कलम मेरी
भटक जातें हैं हाथ
ढूंढ नहीं पाती अंत को
अभी कुछ और धागा शेष है
अभी कुछ और पिरोना बाकी है
सम्पूर्णता के अभाव में पूर्णता नहीं
झटक कर फिर बिखरा देती
माला एक धागे में बदल जाती
फिर से गुथने को तैयार
मनके बिखर जाते वहीं कहीं
आस पास ….
सुंदर रचना, यही कविता लिखते रहे !!
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ब्यूटीफुल..
अपूर्ण में भी सौंदर्य होता है.. 😍
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अपूर्णता में एक अनूठा सौंदर्य बोध है..😍
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Ek Achhchhi Abhivyakiti. All the best
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बहुत ही प्यारी कविता, माला के मनकों में जीवन के उधेड़ बुन को देखती हुई, बहुत साधुवाद
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सुंदर भाव अभिव्यक्ति।
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अति सुन्दर..
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