| कवि- डॉ.अनिल शर्मा ‘अनिल’ | जय जय श्री गोपाला,जय जय नंदलालाजसुमति के लाला की,जै कन्हैया लाल की।बंसी के बजैया और, गऊओं के चरैया की,रास के रचैया प्रभु,जय हो गोपाल कीनाग के नथैया स्वामी,जय जय अंतर्यामी,गिरिवर धारी जय,बांके बिहारी लाल की।गोपिन के चितचोर, जय हो नंदकिशोर,नमन है कर जोड़ ,जै हो जगपाल की।। जग केContinue reading “जै कन्हैया लाल की”
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मेरा हिंदुस्तान
| कवयित्री – सुलोचना पंवार | जहाँ वसुधा को माता कहते, गऊ माता को करें प्रणाम,गुरू को दें दर्जा ईश्वर का, मात-पिता भी हैं भगवान ये है मेरा हिंदुस्तान।प्रहरी जिसका बना हिमालय, सागर देता चरण पखारवेद-पुराणों की जननी जो प्रथम सभ्यता की पहचानये है मेरा हिंदुस्तान।अतिथि को जहाँ देव मानकर दिल से देते हैं सत्कारसिद्धांतों सेContinue reading “मेरा हिंदुस्तान”
सूर्य बोध
| कवयित्री – कंचन मखीजा | चेतना का सूर्य ले के चल.. प्राणों में तेरे अग्नि का वास है। पथिक तेरी विजय को, दृढ़ संकल्प का विश्वास है। विस्मरण हुआ निज शक्ति को, आज दिव्यता का!..एक क्षण..स्पंदन.. स्मरण.. बोध मात्र कराना है। मुट्ठी भर अंधेरों की औकात क्या.. उजालों को निगलने की! स्वतः मिट जाऐंगे!Continue reading “सूर्य बोध”
ग़ज़ल
| कवि– डॉ राम गोपाल भारतीय | मत कहो दुनिया में बस अंधेर है आएंगी खुशियां अभी कुछ देर है जो तनी भृकुटि नियति की भी अभी आदमी के कर्म का ही फेर है शक्तियों का दंभ यदि टूटा है तो ये विवश जन की करुण सी टेर है चांद सूरज जीतकर बैठा जहां आदमीContinue reading “ग़ज़ल”
वक़्त
| कवि– राकेश | कुछ अहसास छूट गये हैं तुम्हारे शहर में ज़रा सम्भाल लेना ले जाऊँगा कभी आकर जल्दी में अक्सर ऐसा हो जाता है ना कुछ सामान छूट ही जाता है अक्सर ज़रूरी चीज़ें ही भूलता है इंसान …. देखो ना, सलाम भूल गया ! वहीं मिलेगा एक हिस्सा तुम्हारे घर के अन्दरContinue reading “वक़्त”
माँ
| कवि – डॉ.अनिल शर्मा ‘अनिल ‘ | माँ तो केवल माँ होती है। माँ के जैसा कोई न दूजा, जो निज सुख बच्चों पर वारे। हर दुख,विपदाओं को सहती, फिर भी कभी न हिम्मत हारे।। बच्चों के भविष्य की खातिर, संस्कार के बीज बोती है। माँ तो केवल माँ होती है। लाड़ दुलार लुटातीContinue reading “माँ”
बोगनवेलिया
| कवयित्री- मौसमी चंद्रा | पुरुष चाहता है स्त्री में गुलाब की खूबसूरती लेकिन वे चाहतीं हैं बनना बोगनवेलिया …! एक्स्ट्रा केअर एक्स्ट्रा अटेंशन से कोसों दूर … हर माहौल हर मिट्टी में जैसे पनपती, बढ़ती है बोगनवेलिया..! और बदले में देती है खूबसूरत लदे फूल.., सबसे विलक्षण है कोई इसे नहीं छूता ना येContinue reading “बोगनवेलिया”
मनके
| कवयित्री – R.goldenink (राखी) | हर बार बिखरे शब्दों को जोड़ने का ख्याल आता है ना सुर ही ध्यान है ना स्वरों का ही ज्ञान है ना छंदबद्धता न ही लयबद्धता तोड़ सारे नियम उद्दण्डता से जीवन के उतार-चढ़ाव को शब्दों में पिरो कर एक मनका यहीं पास से एक दूर कहीं से चुनकरContinue reading “मनके”
शर्मीले मोती
| कवि – विनय विक्रम सिंह | मैं तुमको ढूँढ़ लेता हूँ, पलक की कोर पे अक्सर। पिघल मिलती हो मोती सी, सुबह को देखते अक्सर।१। अबोले बोल सी गुपचुप, मुझे छूती हो सावन सी। किलक उठते हैं मन अंकुर, बरसती रात में अक्सर।२। चहक उठती हैं दीवारें, झरोखे खोल लेती हैं। पसारे मौन सीContinue reading “शर्मीले मोती”