| कवयित्री – कंचन मखीजा |

चेतना का सूर्य ले के चल..
प्राणों में तेरे अग्नि का वास है।
पथिक तेरी विजय को,
दृढ़ संकल्प का विश्वास है।
विस्मरण हुआ निज शक्ति को,
आज दिव्यता का!..एक क्षण..स्पंदन..
स्मरण.. बोध मात्र कराना है।
मुट्ठी भर अंधेरों की औकात क्या..
उजालों को निगलने की!
स्वतः मिट जाऐंगे!
अवसाद के प्रयास,
सत्य के प्रकाश में,
कब टिक पाएं हैं!
टूट के ढह जाऐंगे।
सृजन शिल्पी को केवल,
मानवता का परिचय है
जाति,पंथ,प्रांत,भाषा,रंग..
का नहीं कुछ मोल
भिन्नता का भेद आज मिटाना है।
नश्वर जड़ जन जगती को,
प्रकृति के उपहास का,
अधिकार नहीं।
स्वछंदता को,
स्वातंत्र्य की आड़ में,
कुपोषण स्वीकार नहीं।
बहुत हो चुकी अति हुई
निद्रा की..।
जागरण का दीप एक जलाना है।
विस्मरण हुआ ..निज ..दिव्यता का
बोध मात्र कराना है।
सत्य कथन । ज़रूरी है कि इस बात का बोध कर सकें। ज्ञान के चक्षु खोल दीपो से मन और संसार को अलौकिक करें।
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Bahut sunder rachna…kuposhan sweekar nahi..wah
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Very! Nice , Heart Touching
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