| लेखक – भूपेन्द्र |

हिन्दुस्तानी फिल्मों में जब से बोलते चलचित्र का दौर आरम्भ हुआ, तब से पार्श्वगीत फिल्मों के एक अभिन्न अंग बन के उभर आये । सबसे पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ जो 1931 में प्रदर्शित हुई, उसमे 7 गाने थे। उसके तुरंत बाद ‘ शिरीं फर्हाद’ आयी जिसमे 42 गाने थे, और हद तो तब हुई जब ‘इन्द्र सभा’ प्रदर्शित हुई जिसमे 69 गाने थे। ऐसा इसलिये हुआ क्योंकि उस दौर में फिल्मकारों पर यूरोपियन ओपेरा और पारसी थिएटर का खासा प्रभाव था। धीरे धीरे गानों की संख्या कम होती गयी, फिर भी 7 से 10 गाने होना हर फिल्म की ज़रूरत बन गयी। उन दिनों फिल्मी पात्र सेट पर खुद की आवाज में गाते थे और पीछे से साज़िंदे धुन बजाते थे, जिनको कैमरा की पहुंच से दूर बैठाया जाता था। यहाँ से फिल्मी गीतकार का सफर आरम्भ हुआ।
यह वो दौर था जब एक तरफ हिन्दी सहित्य में छायावादी कवियों का बोलबाला था जैसे जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत निराला, सुमित्रानंदन पन्त आदि और दूसरी ओर ऊर्दु में गालिब और मीर की विरासत को मोमिन, हफीज़, मज़ाज, फैज आदि आगे बडा रहे थे। इन सब के इलावा दिनकर जी और अल्लामा इक़बाल वीर रस, देश प्रेम और राष्ट्रवाद के चमकते सितारे थे। ऐसे समय में फिल्म के साथ जुड़ना सामाजिक मूल्यों के विपरीत माना जाता था और फिल्मी गीत संगीत से आज भी कई साहित्यिक वर्ग सौतेला व्यवहार करते हैं। तीस और चालीस के दशक में जिन गीतकारों ने हिंदी फिल्म संगीत को पूरे भारत में लोकप्रिय करवाया उनमें कवि प्रदीप, केदार शर्मा और डी.न. मधोक,(जिनको महाकवि मधोक की उपाधि दी गयी) का नाम उल्लेखनीय है। इनके तुरंत बाद क़मर जलालबादी,मजरूह, कैफी, जां निसार अख्तर, साहिर, राजेन्द्र कृष्ण, भारत व्यास, प्रेम धवन, शैलेंद्र, हसरत, शकील, इन्दीवर ,राजा मेंहदी अली खाँ इत्यादि फिल्मी गीतों के स्वर्णिम युग के गीतकार रहे। ऊर्दु, हिन्दी और लोक भाषाएं जैसे ब्रज, अवधि ,भोजपुरी, खड़ी बोली का प्रयोग गानों में अक्सर होने लगा। फिल्मी गाने हर फिल्म का महत्वपूर्ण अंग बन गए और हर जुबान पर गाने सजने लगे। रेडिओ इनकी लोकप्रियता का एक माध्यम बन गया। उसके बाद साठ, सत्तर के दशक में आनन्द बक्शी, गुलशन बावरा, नीरज, बिहारी, असद भोपाली, अनजान, जावेद अख्तर आदि गीत लेखन में और सरलता लाये जिससे कि बदलते दौर की फिल्में गुजर रही थीं । संगीत की लय तेज हो गयी और पाश्चात्य वाद्यों का प्रयोग बढ़ गया। गीतों की भाषा भी गंभीरता से, आम आदमी की बोली में बदल गयी। नब्बे के दशक में समीर अनजान छाये रहे और उनके बाद इरशाद कामिल, प्रसून जोशी, अमिताभ भट्टाचार्य, कुमार, मनोज मुन्तशिर, वरुण ग्रोवर जैसे गीतकार हैं जो इस विधा को आगे बढ़ा रहे हैं। इस बात का जिक्र यहाँ आवश्यक है कि कुछ सालों से पुराने गानों के रीमिक्स बार- बार बनने से आज की फिल्मी नगमा निगारी पर प्रश्नचिन्ह लग रहे हैं।
यहाँ पर फिल्मी गाने को लिखने की बन्दिशों का जिक्र किये बिना नहीं रहा जा सकता। गीतकार की कई सीमाएं होती है जिसमें धुन पर लिखना और उसी में शब्द डालना सबसे जटिल है। गाने के भाव फिल्म की सिचुएशन और धुन के मीटर में होना ज़रूरी है। शब्दों में सरलता के साथ गहराई भी अनिवार्य है। तीन या चार मिनट के गाने में ये सब होना जैसे गागर में सागर के बराबर है। फिल्मी गीतकारों ने अपने गीतों में देश प्रेम, साधुवाद, छायावाद, भजन, गजल,कव्वाली , केबरे, लोक गीत, डांस सॉंग्स, होली, दीपावली के गीत, दार्शनिक, चिंतनशील, जीवनशास्त्र का अनूठा मिश्रण किया है। यह गीत समस्त भारत में ही नही अथवा पूरे संसार में सुने और सराहे जाते है।
करीब नब्बे साल का अनूठा इतिहास और सामाजिक स्वीकार्यता फिल्मी गीत लेखन को उच्च सांस्कृतिक स्थान प्रदान करते हैं । फिल्मी गीत एक ऐसे ताजा पहाडी झरने के समान हैं जो हमारी संवेदनशीलता को सदा सींचते हैं।
इतना उम्दा लेख, भूपेंदर जी आपका आर्टिकल पढ़ के मुझे फिल्मो में गीत लिखने का ज्ञान प्राप्त हुआ !! दिलचस्प टॉपिक!
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पढने के लिये धन्यवाद। फिल्म गीत लेखन एक अथाह सागर है, मैने तो बस कुछ बूँदें ली हैं। अवसर मिला तौ आगे और सान्झा करूंगा।
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Aapka article behad interesting aur engaging hai… kuch palon ke lie to mai 1920s ke kisi filmi set par pahonch gya tha.. you’ve painted the history of song writing in Hindi film industry with some fine strokes… 👍🏻👍🏻💐
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Bahut dhanyawaad aapka Guru..yeh lagta ajeeb hai magar sachh hai .
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Highly informative as well! 69 songs in a movie, OMG! 😮
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Yes, as mentioned it was due to the influence of western opera and Parsi theatre. It seems unbelievable yet it’s true. Regards
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पढने के लिये बहुत आभार। इस विषय में बहुत रोचक जानकारियां हैं जो कि आम नही हैं। अवसर मिला तो आगे बोद करवा देंगे। धन्यवाद
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पढने के लिये धन्यवाद। फिल्म गीत लेखन एक अथाह सागर है, मैने तो बस कुछ बूँदें ली हैं। अवसर मिला तौ आगे और सान्झा करूंगा।
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Bhupender जी, बहुत ही अच्छा और ज्ञानवर्धक लेख, हिंदी फ़िल्मों में गानों की भूमिका अतुलनीय है 🙏🏻
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बहुत आभार निवेदीता जी, मेरे लेख को अनुगूँज में जगह देने के लिये।
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सच में बड़ा लंबा सफर तय करा है फ़िल्मी गीतों ने।
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जी बहुत लंबा सफर जिससे समाज के हर वर्ग पर न सिर्फ मनोरंजन किया बल्कि भावात्मक असर भी छोड़ा। टिप्पणी के लिये धन्यवाद, दीप्ति जी।
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रुचिकर ।
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गीत भारतीय सिनेमा की जान रहे हैं। शैलेन्द्र के बिना राज कपूर अधूरे थे, इसी प्रकार साहिर, नीरज, मजरूह, जाने कितने ही नाम हैं जो हमारे जीवन को रसमय बनाते रहे । आपने नितांत रोचकता के साथ सबकी यादें ताज़ा कर दी। बहुत बहुत बधाई एवं अगली कड़ी के लिए शुभकामनाएं भूपेंद्रजी!
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सर लेख पढ़ कर अच्छा लगा
फिल्म “इंद्र सभा” में 72 गाने हैं।
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