| लेखक – विजय रुस्तगी |

यह वर्ष 1983 की बात है, जब मैं बी.एच.ई.एल. दिल्ली में कार्यरत था। यह भारत सरकार की नव-रत्न कंपनियों में से एक है और अपनी दक्ष कार्य प्रणाली के लिए जानी जाती है । निर्देशक वित्त बहुत ही सख्त स्वभाव के थे । सभी कर्मचारी उनसे भय खाते थे। यह संस्था समय की बहुत पाबंद रही। सुबह जरा भी देर होने पर अनुपस्थित मान लिया जाता था ।
बड़े शहरों की अलग ही समस्याएं हैं। ट्रैफिक कंजेशन की वजह से कई बार बस देर से पहुँचती थी। मैंने वहां कार्य प्रारंभ ही किया था। समय पर पहुंचने के लिए मुझे बहुत तेज दौड़ना पड़ता था । हमारा ऑफिस छठे माले पर था। वहां जाने के लिए लिफ्ट लेनी पड़ती थी। ऑफिस के समय पर लिफ्ट के आगे काफी लम्बी कतार होती थी ।
इस कारण से मैं कुछ परेशान था। इसका कोई हल भी नहीं था। आखिर सभी को समय पर पहुँचना ही चाहिए। पर क्या कर्मचारियों की परेशानी, उसके बारे में कोई सोचता है?
एक बार एक मीटिंग में हमारे कार्यकारी निर्देशक सबसे फीडबैक ले रहे थे। बारी बारी से सभी से बात की जा रही थी। माहौल काफी गंभीर था। सब अपनी बात सधे शब्दों में बोल रहे थे। मेरी बारी आने पर मैं हंस पड़ा। भय के बादल छंटने लगे। मुस्कराते हुए र्मैने उनसे कहा कि मैं कल की एक घटना बताना चाहता हूं। मैं हांफता हांफता सुबह ऑफिस की लिफ्ट तक पहुंचा और कतार तोड़ कर लिफ्ट में घुस गया। वहां खड़े एक सज्जन ने मुझसे पूछा क्या आप बीएचईएल में काम करते हो? वहां खड़े बाकी लोग हंस पड़े। फिर क्या था, एक एक कर सभी लोग अब सुबह होने वाली परेशानी पर चर्चा करने लगे। सभी को इस विषय में सभी को बात करते देख कार्यकारी निर्देशक ने शायद कुछ समझा। चेहरे पर गंभीरता रखते हुए, समय पर ऑफिस आने की बात कही। साथ ही बताया कि वह निर्देशक से बात करेंगे।
दूसरे दिन ही उदघोषणा हो गई कि एक महीने में 3 बार की छूट दी जाएगी। सभी लोगों के चेहरे खिल उठे और लोगों ने चैन की सांस ली।
एक बार बोल कर तो देखो, बात में दम है तो उसकी गूंज दूर तक जायेगी
Boht sahi baat likhi hai aapne!
Manto sahb ke shabd yaad aagye,
“Bol ke labh aazaad h tere, bol zubaan ab tak teri h”
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बिल्कुल सही कहा, मन की बात कह देना चाहिए।
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” बोल कर तो देखो ” बोहोत अच्छा शीर्षक है । विजय जी भोत आभार अपनी रचना शेयर करने के लिए। मुझे इस आर्टिकल को पढ़के प्रोत्साहन मिला ।
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बिलकुल । बोल कर तो देखो तभी तो आपकी बात या परेशानी का हल निकाला जाएगा। मन में रखने से किसको कुछ पता चलेगा। अंतर्यामी तोड़े ही हैं हम भाई☺
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बहुत प्रेरणादायक लेख, एक संदेश छोड़ता हुआ, मौन को स्वर देना कभी-कभी जरूरी हो जाता है जीवन में
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